GITA JAYANTI @ GITA BHAWAN

यज्ञ दान तप: कर्म पावनानि मनीषिणाम्।।

इंदौर में स्थित गीता भवन में 62 वा गीता जयंती महोत्सव मनाया गया। इस समारोह में 7 नवंबर को पूज्य गुरुजी के प्रवचन का आयोजन हुआ।

पूज्य गुरुजी ने प्रवचन में यज्ञ दान तप की महिमा बताते हुए कहा कि हर मनुष्य के हृदय में भगवान विरजामन है तथा हर मनुष्य एक बांसुरी की तरह है। किन्तु मन की मलिनता की वजह से भगवान का मधुर संगीत इस बांसुरी से निसृत नही हो पाता है। इसलिए मन को निर्मल करने के लिए साधना करनी पड़ती है | इसके लिए भगवान स्वयं गीता के १८ वे अध्याय में बताते हैं कि यज्ञ दान तप: कर्म पावनानि मनीषिणाम्।अर्थात् यज्ञ दान और तप – ये तीनों मनुष्य को पवित्र करते हैं।  

भगवान बताते हैं कि हर कार्य को यज्ञ बनाया जा सकता है।  हर कार्य को यज्ञ बनाया जा सकता है, यहाँतक कि युध्द को भी यज्ञ बनाया जा सकता है। यज्ञभाव क्या होता है? जैसे हवन में अग्निरूपसे परमात्मा का आवाहन करके उनके प्रति वो अर्पित करते हैं, जो उन्हें प्रसन्न करता है। वैसे ही जहाँ हम भगवान की खुशी के लिए कार्य करते है, उन पर भरोसा रख कर वो कार्य करे, जो उन्हें प्रसन्न करें।
हमारे हर कार्य स्वकेन्द्रित व अपनी कोई चिंता से नही किन्तु अन्य की खुशी के लिए हो तो वही यज्ञ बन जाता है। यज्ञभाव में पूर्ण रूपसे निष्काम होते है। मन में चिंता होना अपने अंदर अपेक्षा का सूचक है, यही मन की मलिनता है।
तप स्वयं को भोगवृत्ति से अलग करते है। कोई न कोई व्रत लेना ही तपस्या होती है। यज्ञ दान और तप ही मन को निर्मल करता है, तब हृदय से मुरली का मधुर संगीत निकलता है। हम भी ऐसे ही एक बाँसुरी बन जाये, वही कल्याणकारी है।

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